कंचन खन्ना

मुरादाबाद, उप्र। यह कंचन है। बचपन में इस पर पोलियो से मिलती जुलती एक खतरनाक बीमारी का हमला हुआ। इसमें शरीर के क्रियाशील अंगों की सूक्ष्म कोशिकाएं अवरुद्घ हो कर अपना काम करना बंद कर देती हैं। इस वजह से शरीर में गतिशीलता समाप्त हो जाती है। यही बीमारी कंचन के छोटे भाई आशीष को भी है। दोनों का इलाज दिल्ली चंडीगढ़ मेरठ जैसे शहरों में विख्यात चिकित्सकों के यहां हुआ, लेकिन कोई भी फायदा नहीं हुआ। कंचन की शारीरिक संरचना को जो ग्रहण लगा उससे न केवल उसके प्रमुख शारीरिक अंगों का विकास रूक गया, अपितु उसकी लंबाई भी वहीं की वहीं ठहर गई। वह केवल दो फुट लंबी है, मगर आप उसकी हिम्मत और योग्यता देखें तो वह समुद्र की अनंत गहराईयों से लेकर
आकाश की अनंत ऊंचाईयों तक भी नहीं नापी जा सकती। अंग्रेजी की ग्रामर लिखने वाली कंचन ने कभी हार नहीं मानी। धिक्कार है, व्यवस्था के इस अंधे और बेरहम दौर को, जिसके सामने कंचन जैसी न जाने कितनी बेबस हैं, जिन पर आज तक किसी की नज़र ही नहीं गई। विश्व विख्यात पीतल नगरी मुरादाबाद में अनगिनत अरबपति उद्योगपतियों, समाजसेवियों और जिला प्रशासन की नाक के नीचे संघर्ष कर रही कंचन अपने भविष्य के अगले संघर्ष की ओर बढ़ रही है। वह प्रश्न कर रही है कि देश की संसद में महिला आरक्षण की बात करने वाले नेताओं ने अगर संसद में यह कानून पास करा भी लिया तो उससे कंचन जैसों की ईमानदारी से देखभाल हो जाएगी?


कंचन कह रही है कि मैं भगवान जैसे अपने माता-पिता, भाई बहन और अपने ‘सर’ को लाख-लाख बार धन्यवाद देती हूं, जिन्होंने मेरी और मेरे भाई की हालत पर और मेरे भविष्य के लिए अपने सुख चैन को तिलांजलि दे दी। अगर हम सरकार से उम्मीदें लगाए बैठे रहते तो पता नहीं मेरा कितना बदतर हाल हुआ होता। मुरादाबाद जैसे शहर में किसी का ध्यान ही नहीं गया कि इस नगरी में अपनी प्रगति के लिए एक ऐसी भी प्रतिभा संघर्ष कर रही है जो अपने लिए ही नहीं अपितु अपने जैसे औरों के लिए भी स्वाभिमान के साथ आत्मनिर्भर बनने की तमन्ना रखती है और इसके लिए उसे औरों के सहयोग की भी जरूरत है। कंचन अपने जैसे बच्चों और लोगों और इस कारण निराशा में जीवन जीने वालों के लिए एक ऐसे अदम्य साहस की प्रेरणास्रोत है जो उसे देखकर और उसकी सफलताओं को जानकर शानदार जीवन जीने की उम्मीदें कर सकते हैं। कंचन पोलियो पर भले ही विजय नहीं पा सकी हो अलबत्ता वह उसकी प्रगति के रास्तों में रुकावट नहीं बन सका। कंचन ने शिक्षा को आधार बनाकर अपने मां-बाप और भाई-बहन के सहयोग से जीवन यापन का रास्ता बनाते हुए बड़ा ही जबर्दस्त संघर्ष किया है। उसके संघर्ष के किस्से कहीं लोगों को रुलाते हैं और कहीं विचारों और निराशा में क्रांति पैदा करते हैं। हिंदी के कवि दुष्यंत की कविताओं की एक लाइन यहां बड़ी प्रासंगिक है-

‘कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता?

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।’

कंचन को देख और जानकर कोई भी कह सकता है कि उसकी लड़ाई वास्तव में एक वीरांगना की लड़ाई है, जिससे औरों की तरह इस शानदार संसार में अपना मुकाम तय करने का ज़ज्बा पैदा होता है। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर के बुध बाजार में श्रीहरिकिशन खन्ना की यह बड़ी लड़की आज छत्तीस वर्ष की है। आश्चर्य होगा कि जो छह माह की उम्र में पोलियो का शिकार हो गई हो, जो अपने पैरों पर भी कभी न खड़ी हो सकती हो, जो अपने नित्य कर्म के लिए भी दूसरों पर आश्रित हो उसने अपने जीवन का छत्तीस साल का सफर कैसे तय किया होगा। उनकी भी हिम्मत देखिए जो बचपन से आज तक कंचन के साथ वैसे ही खड़े हैं। इन छत्तीस सालों में अपने जीवन के बद से बदतर उतार चढ़ाव से लेकर और अपनी सामान्य आत्मनिर्भरता तक जो सफर कंचन ने तय किया है वह बहुत कम ही सुनने को मिलता है। उसकी शिक्षा और उसका लालन-पालन मां-बाप और भाई बहनों ने किस तरह से किया होगा? जहां चारपाई पर लेटे किसी बालक या बूढे़ या जवान की देखभाल करने में अच्छे से अच्छे आदमी का धैर्य डोल जाता है, वहां एक अपाहिज लड़की को एक मुकाम तक पहुंचाने में मां-बाप और भाई बहन ने जो काम किया, वह मिसाल है। ऐसे मां-बाप और ऐसे भाई बहन की हिम्मत और समर्पण को सलाम।

कंचन बिस्तर पर बैठे-बैठे अपने भाई बहन को दिशा-निर्देश देती है। एमए इंग्लिश कंचन आज इंग्लिश की ग्रामर लिख रही हैं। उसकी कई किताबें हैं। उससे पढ़ने, सीखने और प्रेरणा के लिए लोग उससे मिलने आते हैं। वह बिस्तर पर बैठे-बैठे ही सबसे बात करती हैं। उसका बैठने सोने के लिए एक खास बिस्तर है। चूंकि रसोई का काम उसके लिए नामुमकिन है इसलिए वह इस काम को छोड़कर बाकी सभी जरूरी काम करती हैं। कंचन की छोटी बहन ही उसके सारे कार्य करती है, सजाती-संवारती है और मार्केट ले जाती है। उसकी निजी जीवन की जो भी समस्याएं हैं, यही लड़की साथ देती है। वह भी जवान हो गई है, उसकी भी शादी होनी है। जब वह अपनी ससुराल चली जाएगी तो कंचन पर शायद एक और पहाड़ टूटेगा, क्योंकि यही लड़की आज की तारीख में उसकी खास बैसाखी है। कंचन की मां कहती हैं कि मेरी बेटी सब कुछ कर लेती है। पिता श्रीहरिकिशन खन्ना कहते हैं कि मैं बहुत खुश हूं और मैं कहूंगा कि जो भी बच्चे इस तरह के हैं वह कंचन का अनुसरण करें।

कंचन अपनी सफलता का श्रेय मां-बाप, भाई बहन और अध्यापकों को देती हैं। वह आज दूसरों को पढ़ा रही हैं और कहती हैं कि दूसरे बच्चे शिक्षा के माध्यम से अपने प्रतिभा को लायक बना सकते हैं। उसने स्कूल में शिक्षा नहीं ली है। उसकी जो भी शिक्षा हुई है घर पर ही हुई है। उसने हाईस्कूल और इंटर, बीए और एमए प्राइवेट ही किया है। उसकी अंग्रेजी व्याकरण पर जबरदस्त पकड़ है, जिस पर उसने किताब भी लिखी है। कंचन कहती है कि उसे एक शिक्षक से प्रेरणा मिली थी कि यदि वह पढ़ाई पर ध्यान दे तो वह बहुत कुछ कर सकती है। उसकी इस प्रेरणा ने उसका जीवन बदल दिया। वह भले ही आज चलने-फिरने के लिए मोहताज हो, लेकिन वह न केवल आत्मनिर्भर बनना चाहती है अपितु दूसरों के रोजगार के रास्तों का भी सृजन करना चाहती है। अफसोस है कि उसके इस संघर्ष में कोई उसके साथ दिखाई नहीं देता। जो कुछ हैं भी उनकी अपनी सीमाएं हैं। उसके जाननेवाली संस्था ने उसे बताया कि मुरादाबाद जिला प्रशासन की ओर से महिला दिवस पर कोई कार्यक्रम हो रहा है, उसमें उसे सम्मानित किया जाएगा। संस्था के कहने पर मैं वहां चली गई। वहां अधिकारियों ने एक प्रशस्ति-पत्र और पीतल का प्रतीक चिन्ह दे कर उसके साथ अपने प्रमाण के लिए फोटो खिचा लिए। उनकी या अपनी इस उपलब्धि के साथ हम अपने घर वापस आ गए। फिर शुरू हो गया वही चिंतन कि कल क्या होगा? क्योंकि आज उसे अपने लाइलाज पोलियो के इलाज की नहीं बल्कि वह जो कर रही है उसके संसाधनों की जरूरत है।

मै कंचन हूं

हर दिन नए सवाल

तू सामने रखती है,

हर दिन नए जवाब

मैं तलाश करती हूं।

तू मुझे फूल दे या दे कांटे,

जिंदगी तुझसे मुहब्बत मैं करती हूं॥

‘हर दिन एक नया संघर्ष,एक नई चुनौती और मैं। जी हां, कुछ ऐसी ही कहानी है मेरी जिंदगी की। मेरा जन्म 25 जून 1971 को मुरादाबाद (उप्र) में हुआ था। मैं अपने माता-पिता की सबसे बड़ी संतान हूं। जन्म के बाद लगभग चार से छह महीने मेरे लिए एक सामान्य बच्चे जैसे ही थे, किंतु इस दौरान अचानक तेज बुखार होने के पश्चात मेरी शारीरिक स्थिति में बदलाव आया और मुझे पोलियो से मिलती-जुलती एक बीमारी ने आ घेरा। इस बीमारी का प्रभाव इतना घातक था कि मैं स्वयं अपनी मर्जी से अपनी एक उंगली भी नहीं हिला सकती थी। परिवार के सदस्यों सहित शहर के जाने-माने डॉक्टर भी मेरी स्थिति को ठीक से समझ नहीं पाये। इलाज के लिए दिल्ली के बड़े-बड़े अस्पतालों जैसे कलावती तथा ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में चैकअप के बाद इस भयंकर बीमारी की पुष्टि हुई कि मुझे पोलियो जैसी ही एक घातक बीमारी है। कई वर्षों के इलाज के बाद मेरी शारीरिक स्थिति में मात्र इतना परिवर्तन हुआ कि मेरे दोनों हाथ थोड़ा-बहुत काम करने लगे, किन्तु इससे ज्यादा कोई सुधार नहीं हो सका, जिस कारण आज भी अपने दैनिक कार्यों को करने के लिए मैं पूरी तरह दूसरों पर निर्भर हूं।

जैसा कि मैंने लिखा है-मैं अपने सभी भाई-बहनों में सबसे बड़ी हूं। मेरे पांच भाई-बहन और हैं, जिनमें चार भाई-बहन तो बिल्कुल स्वस्थ हैं मगर एक भाई मेरी ही तरह विकलांग हैं। मेरी शिक्षा का आरंभ घर पर ही हुआ। शुरू में शौक के तौर की गई पढ़ाई आगे चलकर मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा साथी बनी। मैंने कभी स्कूल नहीं देखा। घर पर रहकर ही मैं अपने छोटे भाई-बहन की किताबें उठाकर पढ़ती रहती थी और हमेशा कुछ नया सीखने की कोशिश करती थी। उन्हीं दिनों मेरी छोटी बहनों को पढ़ाने के लिए हमारे घर पर एक टयूटर रखे गए, जिन्होंने पढ़ाई के प्रति मेरी रूचि और प्रतिभा को देखते हुए मेरी पढ़ाई की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। उन अध्यापक का नाम श्री सुधीर कुमार टंडन है। सही मायनों में मेरी शिक्षा उन्हीं के मार्गदर्शन में शुरू हुई। मैंने कभी किसी विद्यालय में छात्रा के रूप में शिक्षा प्राप्त नहीं की थी अतः अदालत से विशेष अनुमति लेकर उन्होंने एक स्कूल से व्यक्तिगत छात्रा के रूप में मेरा हाईस्कूल का फार्म भरवाना चाहा। इस पर स्कूल वालों ने यह कहकर फार्म देने से मना कर दिया कि हम एक विकलांग को अपने स्कूल के अन्य विद्यार्थियों के साथ परीक्षा देने की अनुमति नहीं दे सकते, क्योंकि इससे दूसरे विद्यार्थी अपनी परीक्षा पर पूर्ण ध्यान नहीं दे पायेंगे। इससे थोड़ी देर के लिए मुझे और मेरे अध्यापक को बहुत अधिक निराशा हुई। बाद में ‘सर’ ने किसी तरह से एक दूसरे स्कूल से मेरे लिए हाईस्कूल के व्यक्तिगत फार्म का प्रबंध किया। इस प्रकार एक छात्रा के रूप में मेरी पढ़ाई की शुरूआत हो गई। मैंने परीक्षा की तैयारी भी बहुत अच्छी तरह से की, लेकिन परीक्षा शुरू होते ही अचानक मुझे निमोनिया हो गया, जिसके कारण मेरी हालत काफी बिगड़ गई। इस स्थिति के चलते मुझे एक पेपर भी छोड़ना पड़ा। शेष पेपर भी अच्छे नहीं हो पाए। परीक्षा के दौरान तबियत खराब होने से मेरा हौसला बनाए रखने और मेरी देखभाल के लिए मम्मी-पापा के अलावा मेरे अध्यापक भी मेरे साथ विद्यालय जाते थे। ये लोग मुझे गोद में लेकर रिक्शा में बैठते थे। मुझे स्कूल तक ले जाते और वापिस लाते थे। स्कूल की तरफ से मुझे एक अलग कमरा तथा बिस्तर दिया गया। इस पर तीन घंटे तक लेटकर मैं परीक्षा देती थी।

इन सभी परिस्थितियों और परेशानियों के बावजूद मैंने एवं मेरे परिवार ने हिम्मत नहीं हारी। परीक्षा पूर्ण होने के बाद रिजल्ट आने पर मुझे द्वितीय श्रेणी प्राप्त हुई। प्रथम श्रेणी पाने के लिए मात्र सोलह नंबर कम रह गए। फिर भी मुझे खुशी थी कि मेरे साथ-साथ सभी की मेहनत व्यर्थ नहीं गई। इसके पश्चात इसी प्रकार से मैंने व्यक्तिगत छात्रा के रूप में इंटर, बीए और अंत में एमए अंग्रेजी की परीक्षा दी तथा सभी परीक्षाओं में सफलता प्राप्त की। किंतु लिखने की गति कम होने के कारण बीए तथा एमए में अधिक अंक प्राप्त नहीं कर सकी, जिसके कारण मुझे अपनी पीएचडी करने की इच्छा को बीच में ही छोड़ना पड़ा, जिसके लिए एमए में 60 प्रतिशत अंक प्राप्त करना आवश्यक है, जो कि मुझे प्राप्त नहीं हो सके थे, यदि मुझे अनुमति मिल जाए तो मैं आज भी पीएचडी करना चाहती हूं।

जिन दिनों मैं हाईस्कूल की परीक्षा की तैयारी कर रही थी उन्हीं दिनों मेरे अध्यापक ने मुझसे पूछा कि मैं पढ़कर आगे क्या करना चाहती हूं तो मैंने कहा कि मैं बच्चों को पढ़ाना चाहती हूं। मेरी इस इच्छा को देखते हुए अध्यापक ने मेरे लिये अपनी जान-पहचान के दो-चार बच्चों को मेरे पास पढ़वाना शुरू कर दिया। यहीं से मेरी बच्चों को पढ़ाने की शुरूआत हुई। आरंभ में छोटे बच्चों को पढ़ाने के पश्चात जैसे-जैसे मेरी शिक्षा आगे बढ़ती गई, मैंने बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थियों को पढ़ाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे मैंने हाईस्कूल, इंटर, बीए तथा इसके बाद एमए अंग्रेजी तक के विद्यार्थियों को पढ़ाया। इन सबको पढ़ाते हुए मुझे कभी भी किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा।

मेरा एक विद्यार्थी है-सुमित सिंघल जो कि मेरे पास कभी इंटर तक शिक्षा प्राप्त कर चुका था। मुझसे तथा मेरे पढ़ाने के तरीके से वह बहुत अधिक प्रभावित था। उसी ने मुझे अपने प्रकाशन के लिये कक्षा छह से इंटर यूपी बोर्ड की पुस्तकें लिखवाने के लिए संपर्क किया। शुरू में मुझे इस कार्य को करने में थोड़ी हिचकिचाहट महसूस हुई, लेकिन सुमित के मेरी क्षमता और योग्यता में पूर्ण विश्वास दिखाने पर मैंने इसे करने का निश्चय किया। अब तक मैं कक्षा छह तथा सात के लिये अंग्रेजी ग्रामर की दो पुस्तकें लिख चुकी हूं तथा अन्य पुस्तकों को लिखने की तैयारी कर रही हूं।

पढ़ाई के अलावा मेरे कुछ अन्य शौक भी हैं जैसे-कढ़ाई, बुनाई, पेंटिंग करना, संगीत सुनना, क्रिकेट देखना, तरह-तरह की किताबें पढ़ना। मेरा सबसे बड़ा शौक है लेखन। अलग-अलग तरह की कविताएं तथा कहानियां लिखना। मेरी दो कविताएं नई दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका कादंबिनी तथा मुंबई से प्रकाशित पत्रिका काव्या में छप चुकी हैं। मुरादाबाद की दो संस्थाओं आइंजा और प्रेस क्लब ऑफ मुरादाबाद ने शिक्षा एवं साहित्य के क्षेत्र में निरंतर प्रगति के लिए मुझे दो बार सम्मानित किया है। भविष्य में मैं अपनी आत्मकथा और अपनी कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित करवाना चाहती हूं। साथ ही सरकार की सहायता से अपना एक कोचिंग सेंटर चलाना चाहती हूं। लेकिन सरकार को मुझसे भी अच्छी प्रतिभाओं की परवाह नहीं है तो वह मेरे जैसे पर क्या ध्यान देगी? फिर भी मेरी कोशिशें निरंतर जारी हैं। अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे अखबार, कुछ टीवी चैनल सहारा समय उप्र, जी टीवी, ईटीवी उत्तर प्रदेश, मुझ जैसे अन्य लोगों का उत्साह बढ़ाने और प्रेरणा देने के लिए मेरे इंटरव्यू दिखा चुके हैं।

अंत में मै अपने विषय में बस यही कहना चाहती हूं’-

‘घर से चले हैं अभी ही तो,

बस कुछ ही कदम बढ़ाए हैं।

अभी जिंदगी का है सफर,

अभी मंजिलों की तलाश है॥’

कंचन खन्ना का पता है-
हाइलैंड फैक्ट्री के पास,
कोठीवाल नगर, बुध बाजार,
 मुरादाबाद (उप्र) भारत।
फोन नबर-0591-2320898,
मोबाइल-0-9927669920.

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